अध्याय - समीक्षा:
- भारत अत्यंत विकसित किस्म के लोहे का निर्माण करता था - खोता लोहा, पिटवा लोहा, ढलवा लोहा|
- महरौली (दिल्ली) में कुतुबमीनार के परिसर में खड़ा यह लौह स्तंभ भारतीय शिल्पकारों की कुशलता का एक अद्भुत उदहारण हैं|
- दिल्ली के कुतुबमीनार के परिसर में खड़ा लौह स्तंभ ऊँचाई 7.2 मीटर और वजन 3 टन से भी ज्यादा हैं तथा इसका निर्माण लगभग 1500 साल पहले हुआ|
- लौह स्तंभ पर खुदे अभिलेख से पाता चलता हैं इसमें 'चन्द्र' नाम के एक शासक का ज़िक्र हैं जो संभवत: गुप्त वंश के थे|
- स्तूप विभिन्न आकर के थे - कभी गोल या लंबे तो कभी बड़े या छोटे| उन सब में एक समानता हैं| प्राय: सभी स्तूपों के भीतर एक छोटा - सा डिब्बा रख रहता हैं| इन डिब्बों में बृद्ध या उनके अनुयायियों के शरीर के अवशेष (जैसे दांत, हड्डी या राख) या उनके द्वारा प्रयुक्त कोई चीज़ या कोई कीमती पत्थर अथवा सिक्के रखे रहते हैं| इसे धातु - मंजूषा कहते हैं|
- प्रारंभिक स्तूप, धातु - मंजूषा के ऊपर रखा मिट्टी का तिला होता था| बाद में टाइल को ईटों से धक दिया गया और बाद के काल में उस गुम्बदनुमा ढाँचे को तराशे हुए पत्थरों से ढक दिया गया|
- स्तूपों के चारों और परिक्रमा करने के लिए एक वृत्ताकार पाठ बना होता था, जिसे प्रदक्षिणा पथ कहते हैं| इस रास्ते को रेलिंग से घेर दिया जाता था जिसे वेदिका कहते हैं| वेदिका में प्रवेशद्वार बने होते थे| रेलिंग तथा तोरण प्राय: मूर्तिकला की सुन्दर कलाकृत्तियों से सजे होते थे|
- ईमारत की सजावट के लिए पैसे देने वालों में व्यापारी, कृषक, माला बनाने वाले, इत्र बनाने वाले, लोहार - सुनार, तथा ऐसे कई स्त्री - पुरूष शामिल थे जिनके नाम खभों, रेलिंगों तथा दीवारों पर खुदे हैं
- करीब 1800 साल पहले एक प्रसिद्ध तमिल महाकाव्य सिलप्पदिकारम की रचना इलागों नामक कवि ने की| इसमें कोवलन नाम के एक व्यापारी की कहानी हैं|
- इसी समय गणितज्ञ तथा खगोलशास्त्री आर्यभट्ट ने संस्कृत में आर्यभट्टीयम नामक पुस्तक लिखी|