अध्याय-समीक्षा
- पवन, जल और जलवायु की क्रिया से शैलों (चट्टानों) के टूटने पर मृदा का निर्माण होता है।
- मृद्दा का निर्माण दो बातों पर निर्भर करता है (i) किसी मृदा की प्रकृति उन शैलों पर निर्भर करती है, जिनसे इसका निर्माण हुआ है।(ii) यह उन वनस्पतियों की किस्मों पर भी निर्भर करती है, जो इसमें उगते हैं।
- मृदा में उपस्थित सडे गले पदार्थ ह्युमस कहलाते है।
- पवन, जल और जलवायु की क्रिया से शैलों (चट्टानों) के टूटने पर मृदा का निर्माण होता है । यह प्रक्रम अपक्षय कहलाता है।
- प्रत्येक परत स्पर्श (गठन) रंग , गहराई , और रासायनिक संगठन में भिन्न होती है। से परतें संस्तर-स्थितियाँ कहलाती है।
- ह्यूमस मृदा का सबसे उपजाऊ भाग होता है |
- यह परत सामान्यतः मृदु सरंध्र और अधिक जल को धारण करने वाली होती है । इसे शीर्ष मृदा कहते है।
- मृदा परिच्छेदिका के उस परत को आधार शैल कहते है जो कठोर और खोदने में कठिन होता है ।
- मृदा का अपरदन मरुस्थल अथवा बंजर भूमि जैसे स्थानों पर अधिक होता है जहाँ कि सतह पर बहुत कम अथवा कोई वनस्पति नहीं होती है।
- बलुई मृदा हल्की, सुवातित और शुष्क होती है। ये आसानी से एक-दूसरे से जुड़ नहीं पाते। अतः इनके बीच में काफी रिक्त स्थान होते हैं।
- मृत्तिका (चिकनी मिट्टी) का उपयोग बर्तनों, खिलौनों और मूर्तियों को बनाने के लिए किया जाता है।
- गेहूँ जैसी फसलें महीन मृण्मय मृदा में उगाई जाती हैं, क्योंकि वह ह्यूमस से समृद्ध और अत्यधिक उर्वर होती है।
- धन के लिए, जैव पदार्थ से समृद्ध तथा अच्छी जल धरण क्षमता वाली मृदा आदर्श होती हैं। जैसे - मृत्तिका एवं दुमटी मृदा।
- जल, पवन अथवा बर्फ के द्वारा मृदा की ऊपरी सतह का हटना मृदा अपरदन कहलाता है।