अध्याय - समीक्षा:
- 12 अगस्त 1765 को मुगल बादशाह ने ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल का दीवान तैनात किया। बंगाल की दीवानी हाथ आ जाना अंग्रेजों के लिए निश्चय ही एक बड़ी घटना थी।
- दीवान के तौर पर कंपनी अपने नियंत्रण वाले भूभाग के आर्थिक मामलों की मुख्य शासक बन गई थी।
- 1865 से पहले कंपनी ब्रिटेन से सोने और चाँदी का आयात करती थी और इन चीजों के बदले सामान ख़रीदती थी। अब बंगाल में इकट्ठा होने वाले पैसे से ही निर्यात के लिए चीजों ख़रीदी जा सकती थीं।
- बंगाल की अर्थव्यवस्था एक गहरे संकट में फँसती जा रही थी। कारीगर गाँव छोड़कर भाग रहे थे क्योंकि उन्हें बहुत कम कीमत पर अपनी चीजें कंपनी को जबरन बेचनी पड़ती थीं। किसान अपना लगान नहीं चुका पा रहे थे। कारीगरों का उत्पादन गिर रहा था और खेती चौपट होने की दिशा में बढ़ रही थी |
- 1770 में पड़े अकाल ने बंगाल में एक करोड़ लोगों को मौत की नींद सुला दिया। इस अकाल में लगभग एक तिहाई आबादी समाप्त हो गई।
- बंगाल की अर्थव्यवस्था संकट में थी | इसलिए कंपनी ने स्थायी बंदोबस्त लागु किया |
- मगर स्थायी बंदोबस्त ने भी समस्या पैदा कर दी। कंपनी के अफसरों ने पाया कि अभी भी जमींदार जमीन में सुधार के लिए खर्चा नहीं कर रहे थे। असल में, कंपनी ने जो राजस्व तय किया था वह इतना ज़्यादा था कि उसको चुकाने में जमींदारों को भारी परेशानी हो रही थी।
- जो जमींदार राजस्व चुकाने में विफल हो जाता था उसकी जमींदारी छीन ली जाती थी। बहुत सारी जमींदारियों को कंपनी बाकायदा नीलाम कर चुकी थी।
- उन्नीसवीं सदी के पहले दशक तक हालात बदल चुके थे। बाजार में कीमतें बढ़ीं और धीरे-धीरे खेती का विस्तार होने लगा। इससे जमींदारों की आमदनी में तो सुधार आया लेकिन कंपनी को कोई फायदा नहीं हुआ क्योंकि कंपनी तो हमेशा के लिए राजस्व तय कर चुकी थी। अब वह राजस्व में वृद्धि
नहीं कर सकती थी। - महल - ब्रिटिश राजस्व दस्तावेजों में महल एक राजस्व इकाई थी। यह एक गाँव या गाँवों का एक समूह होती थी।
- किसान को जो लगान चुकाना था वह बहुत ज़्यादा था और जमीन पर उसका अधिकार सुरक्षित नहीं था। लगान चुकाने के लिए अकसर महाजन से
कर्जा लेना पड़ता था। अगर वह लगान नहीं चुका पाता था तो उसे पुश्तैनी जमीन से बेदखल कर दिया जाता था। - उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में ही कंपनी के बहुत सारे अधिकारियों को इस
बात का यकीन हो चुका था कि राजस्व बंदोबस्त में दोबारा बदलाव लाना
जरूरी है। - राजस्व इकट्ठा करने और उसे कंपनी को अदा करने का जिम्मा जमींदार की बजाय गाँव के मुखिया को सौंप दिया गया। इस व्यवस्था को महालवारी बंदोबस्त का नाम दिया गया।
- ब्रिटिश नियंत्रण वाले दक्षिण भारतीय इलाकों में भी स्थायी बंदोबस्त की
जगह नयी व्यवस्था अपनाने का प्रयास किया जाने लगा। वहाँ जो नयी
व्यवस्था विकसित हुई उसे रैयतवार या (रैयतवारी) का नाम दिया गया। - रैयतवार या (रैयतवारी) व्यवस्था को ही मुनरों व्यवस्था कहा जाता है |
- नील का पौधा मुख्य रूप से उष्णकटिबंधीय इलाकों में ही उगता है। तेरहवीं
सदी तक इटली, प्ऱफांस और ब्रिटेन वेफ कपड़ा उत्पादक कपड़े की रँगाई वेफ
लिए भारतीय नील का इस्तेमाल कर रहे थे। - उस समय भारतीय नील की बहुत थोड़ी मात्रा ही यूरोपीय बाजारों में
पहुँचती थी। उसकी कीमत भी बहुत ऊँची रहती थी। इसीलिए यूरोपीय
कपड़ा उत्पादकों को बैंगनी और नीले रंग बनाने के लिए वोड नामक एक
और पौधे पर निर्भर रहना पड़ता था। - वोड पौधा शीतोष्ण क्षेत्र में उगता था इसलिए यूरोप में आसानी से मिल जाता था। उत्तरी इटली, दक्षिणी फ्रांस जर्मनी और ब्रिटेन के कई हिस्सों में यह पौधा उगता था। नील के साथ प्रतिस्पर्धा से परेशान यूरोप के वोड उत्पादकों ने अपनी सरकारों पर दवाब डाला कि वे नील के आयात पर पाबंदी लगा दें।
- मगर कपड़े को रँगने वाले तो नील को ही पसंद करते थे। नील से बहुत
चमकदार नीला रंग मिलता था जबकि वोड से मिलने वाला रंग बेजान और
फीका होता था। - सत्राहवीं सदी तक आते-आते यूरोपीय कपड़ा उत्पादकों ने नील के आयात पर लगी पाबंदी में ढील देने के लिए अपनी सरकारों को राज़ी कर लिया।
- कैरीबियाई द्वीप समूह स्थित सेंट डॉमिंग्यू में प़्रफांसीसी, ब्राशील में पुर्तगाली, जमैका में ब्रिटिश और वेनेशुएला में स्पैनिश लोग नील की खेती करने लगे। उत्तरी अमेरिका के भी बहुत सारे भागों में नील के बागान सामने आ गए थे।
- अठारहवीं शताब्दी के आखिर तक भारतीय नील की माँग और बढ़ गई। ब्रिटेन में औद्योगीकरण का युग शुरू हो चुका था और उसके कपास उत्पादन
में भारी इजाफा हुआ। - अब कपड़ों की रँगाई की माँग और तेजी से बढ़ने लगी। जब नील की माँग बढ़ी उसी दौरान वेस्टइंडीश और अमेरिका से मिलने वाली आपूर्ति अनेक कारणों से बंद हो गई।
- 1783 से 1789 के बीच दुनिया का नील उत्पादन आधा रह गया था। ब्रिटेन के रँगरेश अब नील की आपूर्ति के लिए बैचेनी से किसी और स्त्रोत की तलाश कर रहे थे।
- अठाहरवीं सदी के आखिरी दशकों से ही बंगाल में नील की खेती तेजी से फ़ैलने लगी थी। बंगाल में पैदा होने वाला नील दुनिया के बाजारों पर छा गया था।
- 1788 में ब्रिटेन द्वारा आयात किए गए नील में भारतीय नील का हिस्सा केवल लगभग 30 प्रतिशत था। 1810 में ब्रिटेन द्वारा आयात किए गए नील में भारतीय नील का हिस्सा 95 प्रतिशत हो चुका था।
- नील की खेती के दो मुख्य तरीके थे - निज और रैयती।
- बीघा - शमीन की एक माप। ब्रिटिश शासन से पहले बीघे काआकार अलग-अलग होता था। बंगाल में अंग्रेजो ने इसका क्षेत्रफल करीब एक तिहाई एकड़ तय कर दिया था।
- उन्नीतसवीं सदी के आखिर तक बागानों मालिक निज खेती का क्षेत्रफल फ़ैलाने
में हिचकिचाते थे। इस व्यवस्था के तहत नील की पैदावार वाली 25 प्रतिशत से
भी कम जमीन आती थी। बाकी जमीन रैयती व्यवस्था के अंतर्ग थी। - कर्ज़ा लेने वाले रैयत को अपनी कम से कम 25 प्रतिशत
जमीन पर नील की खेती करनी होती थी। बागान मालिक बीज और उपकरण मुहैया कराते थे जबकि मिट्टी को तैयार करने, बीज बोने और फसल की देखभाल करने का जीमा काश्तकारों के ऊपर रहता था। - नील के साथ परेशानी यह थी कि उसकी जड़ें बहुत गहरी होती थीं और वह मिट्टी की सारी ताकत खींच लेती थीं। नील की कटाई के बाद वहाँ धान की खेती नहीं की जा सकती थी।
- मार्च 1859 में बंगाल के हजारों रैयतों ने नील की खेती से इनकार कर दिया। जैसे-जैसे विद्रोह फैला, रैयतों ने बागान मालिकों को लगान चुकाने से भी इनकार कर दिया।
- 1857 की बग़ावत के बाद ब्रिटिश सरकार एक और व्यापक विद्रोह वेफ ख़तरे से डरी हुई थी। जब नील की खेती वाले जिलों में एक और बग़ावत की ख़बर फैली तो लेफ्रि़टनेंट गवर्नर ने 1859 की सर्दियों में इलाके का दौरा किया।
- बरसात में मजिस्ट्रेट ऐशले ईडन ने एक नोटिस जारी किया जिसमें कहा गया था कि रैयतों को नील के अनुबंध मानने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा।
- इस नोटिस के आधार पर लोगों में यह ख़बर फ़ैल गई कि रानी विक्टोरिया ने नील की खेती न करने का हुक्म दे दिया है। ईडन किसानों को शांत करने और विस्पफोटक स्थितियों को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहे थे। उसकी कार्रवाई को किसानों ने अपने विद्रोह का समर्थन मान लिया।
- नील उत्पादन व्यवस्था की जाँच करने के लिए एक नील आयोग भी बना दिया गया। इस आयोग ने बगान मालिकों को दोषी पाया, जोर-जबरदस्ती के लिए उनकी आलोचना की। आयोग ने कहा कि नील कीखेती रैयतों के लिए फायदे का सौदा नहीं है। आयोग ने रैयतों से कहा कि वे मौजूदा अनुबंधों को पूरा करें लेकिन आगे से वे चाहें तो नील की खेती बंद कर सकते हैं।
- उन्नीसवीं सदी के आखिर में कृत्रिम रंगों का निर्माण होने लगा था। इससे उनका व्यवसाय भी बुरी तरह प्रभावित हुआ। फिर भी, वे उत्पादन फैलाने में सफल रहे।
- जब महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से लौटे तो बिहार के एक किसान ने उन्हें
चंपारण आकर नील किसानों की दुर्दशा को देखने का न्यौता दिया। - 1917 में महात्मा गांधी का यह दौरा नील बागान मालिकों के ख़िलाफ चंपारण
आंदोलन की शुरुआत थी।